मैं और मेरी चिड़िया : ॠतु गोयल
एक थी चिड़िया
एक थी मैं
मैं थी चिड़िया
या चिड़िया थी मैं
यह समझना मुश्क़िल था
क्योंकि इतनी समानताएँ थीं
हम दोनों में
कि लोग
अक्सर मुझे चिड़िया कहते थे
और चिड़िया को मुझ जैसा
हमने कितनी ही शाखों पर झूले डाले थे
झूलों में सजाए थे सपने
सपनों में छोटी-छोटी चाहतें
और चाहतों में क्या
बस गलियाँ, सखियाँ और अपने।
पर जैसे-जैसे
हमारे क़द
हमारे झोटों से ऊँचे होने लगे
न जाने किसकी नज़र लगी
घर वाले कुछ गुमसुम रहने लगे
मुझे और मेरी चिड़िया को
क़ैद रहना नहीं भाता…
दुनियादारी भी निभाना नहीं आता
पर हमें सब सिखाया गया
लड़की होने का मतलब बताया गया
हम तो और उड़ना चाहती थीं
साबित करना चाहती थीं
कि हमारे नाज़ुक से परों की उड़ान में
इतने हौसले हैं
कि हम ज़मीं पर टिकी रह कर भी
आसमां छू सकती हैं।
पर हमारे पंख हमसे छीन लिए गए।
…और एक रस्म निभाई गई
जिसमें गलियाँ, सखियाँ, अपने सब तो दूर हुए ही
मेरी चिड़िया भी मुझसे बिछुड़ गई
अब मुझे कोई चिड़िया नहीं कहता
शायद चिड़िया को भी
मुझ जैसा नहीं कहता होगा
अब जब भी जाती हूँ उन गलियों में
वो चिड़िया दिखाई नहीं देती
वह भी रुख़सत हो गई होगी कहीं
मायके में
बिन बिटिया के
चिड़िया के क्या मायने?
और ससुराल वाले क्या जाने
यह ससुरी चिड़िया क्या होती है
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