गोरी बैठी छत पर : ओमप्रकाश आदित्य
उदास रमणी और हिन्दी के कवि।
एक नवयुवती छज्जे पर बैठी है। वह उदास है। उसकी मुखमुद्रा को देखकर ऐसा लगता है, जैसे वह छज्जे से कूद कर आत्महत्या करने वाली हो। हिन्दी के विभिन्न कवियों से इस सिचुएशन पर यदि कविता लिखने को कहा जाता तो वे अपनी-अपनी शैली में किस प्रकार लिखते-
मैथिलीशरण गुप्त
अट्टालिका पर एक रमणी अनमनी-सी है, अहो!
किस वेदना के भार से संतप्त हो देवी, कहो!
धीरज धरो, संसार में किसके नहीं दुर्दिन फिरे!
हे राम! रक्षा कीजिए अबला न भूतल पर गिरे!
सुमित्रानंदन पंत
स्वर्ण-सौध के रजत शिखर पर
चिर नूतन चिर सुन्दर प्रतिपल
उन्मन-उन्मन
अपलक नीरव
शशि-मुख पर कोमल कुन्तल-पट
कसमस-कसमस चिर यौवन-घट
पल-पल प्रतिपल
छल-छल करती निर्मल दृग जल
ज्यों निर्झर के दो नीलकमल
यह रूप चपल ज्यों धूप चपल
अतिमौन
कौन?
रूपसि बोलो
प्रिये, बोलो ना!
महाकवि निराला
यह मन्दिर की पूजा संस्कृति का शिलान्यास
इसके आँचल में चिति की लीला का विलास
यह मर्माहत हो करे कूद कर आत्मघात
विकसित मानव वक्षस्थल पर धिक् वज्रपात
नर के सुख हित रक्षित अधिकारों के उपाय
युग-युग से नारी का दुख ही पर्याय हाय
बीतेगी, रे, कब बीतेगी यह अन्धरात
अबला कब होगी सबला कब होगा प्रभात।
रामधारी सिंह दिनकर
दग्ध हृदय में धधक रही उत्तप्त प्रेम की ज्वाला
हिमगिरि के उत्स निचोड़, फोड़ पाताल, बनो विकराला
ले ध्वंसों के निर्माण, माण से गोद भरो पृथ्वी की
छत पर से मत गिरो, गिरो अम्बर से वज्र सरीखी
काका हाथरसी
गोरी बैठी छत्त पर, कूदन को तैयार
नीचे पक्का फर्श है, भली करें करतार
भली करें करतार, न दे दे कोई धक्का
ऊपर मोटी नार कि नीचे पतरे कक्का
कह काका कविराय, अरी! आगे मत बढ़ना
उधर कूदना, मेरे ऊपर मत गिर पड़ना
गोपाल प्रसाद व्यास
छत पर उदास क्यों बैठी है
तू मेरे पास चली आ री!
जीवन का दुख-सुख बँट जाए
कुछ मैं गाऊँ कुछ तू गा री!
तू जहाँ कहीं भी जाएगी
जीवन भर कष्ट उठाएगी
यारों के साथ रहेगी तो
मथुरा के पेड़े खाएगी।
श्याम नारायण पाण्डेय
ओ घमण्ड मण्डिनी
अखण्ड खण्ड खण्डिनी
वीरता विमण्डिनी
प्रचण्ड चण्ड-चण्डिनी
सिंहनी की शान से
आन-बान-शान से
मान से, गुमान से
तुम गिरो मकान से
तुम डगर-डगर गिरो
तुम नगर-नगर गिरो
तुम गिरो अगर गिरो
शत्रु पर मगर गिरो!
भवानी प्रसाद मिश्र
गिरो!
तुम्हें गिरना है तो ज़रूर गिरो!
पर कुछ अलग ढंग से गिरो!
गिरने के भी कई ढंग होते हैं
गिरो
जैसे बूंद गिरती है किसी बादल से
और बन जाती है मोती
बखूबी गिरो हँसते-हँसते मेरे दोस्त
जैसे सीमा पर गोली खाकर सिपाही गिरता है
सुबह की पत्तियों पर ओस की बूंद जैसी गिरो!
गिरो!
पर ऐसे मत गिरो
जैसे किसी की आँख से कोई गिरता है
किसी ग़रीब की झोंपड़ी पर मत गिरो
बिजली की तरह गिरो
पर किसी की हो के गिरो
किसी के ग़म में रो के गिरो
कुछ करके गिरो
फिर चाहे भी भरके गिरो!
गोपालदास ‘नीरज’
यों न हो उदास रूपसि, तू मुस्कुराती जा
मौत में भी ज़िन्दगी के फूल कुछ खिलाती जा
जाना तो हर एक को है एक दिन जहान से
जाते-जाते मेरा एक गीत गुनगुनाती जा
देवराज दिनेश
मनहर सपनों में खोयी-सी
कुछ-कुछ उदास, कुछ रोयी सी
यह कौन हठीली छत से गिरने को आतुर
कह दो इससे अपने जीवन से प्यार करे
संघर्ष गले का हार करे
विपदाओं में जीना सीखे
जीवन यदि विष है तो उसको
हँसते-हँसते पीना सीखे
कह दो इससे!
बालकवि बैरागी
गौ…री, हे…मरवण…हे
गौरी हे! मरवण हे!
थारी बातों में म्हारी सब बाताँ
थारो सब कुंजी तालो जी
उतरो-उतरो म्हारी मरवण उतरो
घर को काम सँभालो जी
गौरी हे, मरवण हे।
सुरेन्द्र शर्मा
ऐरी के कररी है
छज्जै से निचै कुद्दै है
तो पहली मंजिल से क्यूँ कुद्दै
चैथी पे जा
जैसे क्यूँ बेरो तो पाट्टै
के कुद्दी थी।
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