काँच का खिलौना : आत्मप्रकाश शुक्ल
माटी का पलंग मिला राख का बिछौना
ज़िन्दगी मिली कि जैसे काँच का खिलौना
एक ही दुकान में सजे हैं सब खिलौने
खोटे-खरे, भले-बुरे, साँवरे-सलोने
कुछ दिन दिखे पारदर्शी, चमकीले
उड़े रंग, निरे अंग हो गए घिनौने
जैसे-जैसे बड़ा हुआ होता गया बौना
ज़िन्दगी मिली कि जैसे काँच का खिलौना
मौन को अधर मिले अधरों को वाणी
प्राणों को पीर मिली पीर को कहानी
मूठ बांध आए, चले ले खुली हथेली
पाँव को डगर मिली वह भी अनजानी
मन को मिला है यायावर मृगछौना
ज़िन्दगी मिली कि जैसे काँच का खिलौना
धरा, नभ और पवन, अगिन और पानी
पाँच लेखकों ने लिखी एक ही कहानी
एक दृष्टि है जो सारी सृष्टि में समाई
एक शक्ल की ही सारी दुनिया दीवानी
एक मूँठ माटी गई तौल सारा सोना
ज़िन्दगी मिली कि जैसे काँच का खिलौना
शोर भरी भोर मिली, बावरी दुपहरी
साँझ थी सयानी किन्तु गूंगी और बहरी
एक रात लाई बड़ी दूर का संदेशा
फ़ैसला सुना के ख़त्म हो गई कचहरी
ओढ़ने को मिला वही दूधिया उढ़ौना
ज़िन्दगी है मिली जैसे काँच का खिलौना
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