Category Archives: Hasya Kavi Sammelan

Kyon Pyar Kiya Tha : Harivansh Rai Bachchan

क्यों प्यार किया था : हरिवंश राय बच्चन

अर्द्धरात्रि में सहसा उठ कर
पलक संपुटों में मदिरा भर
तुमने क्यों मेरे चरणों में
अपना तन-मन वार दिया था
क्षण भर को क्यों प्यार किया था

‘यह अधिकार कहाँ से लाया’
और न कुछ मैं कहने पाया
मेरे अधरों पर निज अधरों
का तुमने रख भार दिया था
क्षण भर को क्यों प्यार किया था

वह क्षण अमर हुआ जीवन में
आज राग जो उठता मन में
यह प्रतिध्वनि उसकी जो उर में
तुमने भर उद्गार दिया था
क्षण भर को क्यों प्यार किया था

Agnipath : Harivansh Rai Bachchan

अग्निपथ : हरिवंश राय बच्चन

अग्निपथ! अग्निपथ! अग्निपथ!

वृक्ष हों भले खड़े
हों घने, हों बड़े
एक पत्र छाँह भी
मांग मत! मांग मत! मांग मत!

तू न थकेगा कभी
तू न थमेगा कभी
तू न मुड़ेगा कभी
कर शपथ! कर शपथ! कर शपथ!

यह महान दृश्य है
गल रहा मनुष्य है
अश्रु-स्वेद-रक्त से
लथ-पथ! लथ-पथ! लथ-पथ!

अग्निपथ! अग्निपथ! अग्निपथ!

Jeewan Ki Aapa-Dhapi mein : Hari Vansh Rai Bachchan

जीवन की आपाधापी में : हरिवंश राय बच्चन

जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी ये सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना; उसमें क्या बुरा-भला

जिस दिन मेरी चेतना जगी, मैंने देखा
मैं खड़ा हुआ हूँ इस दुनिया के मेले में
हर एक यहाँ पर एक भुलावे में भूला
हर एक लगा है अपनी अपनी दे-ले में
कुछ देर रहा हक्का-बक्का, भौंचक्का-सा
आ गया कहाँ? क्या करूँ? यहाँ जाऊँ किस जा?
फिर एक तरफ़ से आया ही तो धक्का-सा
मैंने भी बहना शुरू किया उस रेले में
क्या बाहर की ठेला-पेली ही कुछ कम थी
जो भीतर भी भावों का ऊहापोह मचा
जो किया, उसी को करने की मजबूरी थी
जो कहा, वही मन के अंदर से उबल चला
जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला…

मेला जितना भड़कीला रंग-रंगीला था॥
मानस् के अन्दर उतनी ही कमज़ोरी थी।।
जितना ज़्यादा संचित करने की ख़्वाहिश थ
उतनी ही छोटी अपने कर की झोरी थी
जितनी ही बिरले रहने की थी अभिलाषा
उतना ही रेले तेज ढकेले जाते थे
क्रय-विक्रय तो ठंडे दिल से हो सकता है
यह तो भागा-भागी की छीना-छोरी थी
अब मुझसे पूछा जाता है क्या बतलाऊँ
क्या मान अकिंचन बिखराता पथ पर आया
वह कौन रतन अनमोल मिला ऐसा मुझको
जिस पर अपना मन प्राण निछावर कर आया
यह थी तक़दीरी बात मुझे गुण-दोष न दो
जिसको समझा था सोना, वह मिट्टी निकली
जिसको समझा था आँसू, वह मोती निकला
जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला

मैं कितना ही भूलूँ, भटकूँ या भरमाऊँ
है एक कहीं मंज़िल जो मुझे बुलाती है
कितने ही मेरे पाँव पड़ें ऊँचे-नीचे
प्रतिपल वह मेरे पास चली ही आती है
मुझ पर विधि का आभार बहुत-सी बातों का
पर मैं कृतज्ञ उसका इस पर सबसे ज़्यादा-
नभ ओले बरसाए, धरती शोले उगले
अनवरत समय की चक्की चलती जाती है
मैं जहाँ खड़ा था कल उस थल पर आज नहीं
कल इसी जगह पर पाना मुझको मुश्क़िल है
ले मापदंड जिसको परिवर्तित कर देतीं
केवल छूकर ही देश-काल की सीमाएँ
जग दे मुझ पर फैसला उसे जैसा भाए
लेकिन मैं तो बेरोक सफ़र में जीवन के
इस एक और पहलू से होकर निकल चला
जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला

Jana Gana Mana : Rabindranath Tagore

जय हे जय हे जय हे : रबीन्द्रनाथ टैगोर

जन-गण-मन अधिनायक जय हे
भारत-भाग्य-विधाता
पंजाब-सिन्ध-गुजरात-मराठा
द्राविड़-उत्कल-बंग
विन्ध्य-हिमाचल, यमुना-गंगा
उच्छल जलधि तरंग
तव शुभ नामे जागे
तव शुभ आशिष मांगे
गाहे तव जय गाथा
जन-गण-मंगलदायक जय हे
भारत-भाग्य-विधाता
जय हे, जय हे, जय हे
जय-जय-जय, जय हे
पतन-अभ्युदय-वन्धुर-पंथा
युग-युग धावित यात्री
हे चिर-सारथी
तव रथचक्रे मुखरित पथ दिन-रात्रि
दारुण विप्लव-माँझे
तव शंखध्वनि बाजे
संकट-दुख-श्राता
जन-गण-पथ-परिचायक जय हे
भारत-भाग्य-विधाता
जय हे, जय हे, जय हे
जय-जय-जय, जय हे
घोर-तिमिर-घन-निविड़-निशीथ
पीड़ित मूर्च्छित-देशे
जागृत दिल तव अविचल मंगल
नत-नत-नयन अनिमेष
दुस्वप्ने आतंके
रक्षा करिजे अंके
स्नेहमयी तुमि माता
जन-गण-मन-दुखत्रायक जय हे
भारत-भाग्य-विधाता
जय हे, जय हे, जय हे
जय-जय-जय, जय हे
रात्रि प्रभातिल उदिल रविच्छवि
पूरब-उदय-गिरि-भाले
साहे विहंगम, पूर्ण समीरण
नव-जीवन-रस ढाले
तव करुणारुण-रागे
निद्रित भारत जागे
तव चरणे नत माथा
जय-जय-जय हे, जय राजेश्वर
भारत-भाग्य-विधाता
जय हे, जय हे, जय हे
जय-जय-जय, जय हे

Us Paar Na Jaane Kya Hoga : Harivansh Rai Bachchan

उस पार न जाने क्या होगा : हरिवंश राय बच्चन

इस पार, प्रिये मधु है तुम हो
उस पार न जाने क्या होगा

यह चांद उदित होकर नभ में, कुछ ताप मिटाता जीवन का
लहरा-लहरा ये शाखाएँ कुछ शोक भुला देतीं मन का
कल मुरझाने वाली कलियाँ हँसकर कहती हैं मग्न रहो
बुलबुल तरु की फुनगी पर से संदेश सुनाती यौवन का
तुम देकर मदिरा के प्याले मेरा मन बहला देती हो
उस पार मुझे बहलाने का उपचार न जाने क्या होगा

जग में रस की नदियाँ बहतीं रसना दो बूंदें पाती है
जीवन की झिलमिल-सी झाँकी नयनों के आगे आती है
स्वरतालमयी वीणा बजती मिलती है बस झंकार मुझे
मेरे सुमनों की गंध कहीं यह वायु उड़ा ले जाती है
ऐसा सुनता; उस पार प्रिये! ये साधन भी छिन जाएंगे
तब मानव की चेतनता का आधार न जाने क्या होगा

प्याला है पर पी पाएंगे है ज्ञात नहीं इतना हमको
इस पार नियति ने भेजा है असमर्थ बना कितना हमको
कहने वाले पर कहते हैं हम कर्मों में स्वाधीन सदा
करने वालों की परवशता है ज्ञात किसे; जितनी हमको?
कह तो सकते हैं, कहकर ही कुछ दिल हल्का कर लेते हैं
उस पार अभागे मानव का अधिकार न जाने क्या होगा

कुछ भी न किया था जब उसका; उसने पथ में काँटे बोए
वे भार दिए धर कंधों पर जो रो-रोकर हमने ढोए
महलों के सपनों के भीतर जर्जर खंडहर का सत्य भरा
उर में ऐसी हलचल भर दी दो रात न हम सुख से सोए
अब तो हम अपने जीवन भर उस क्रूर कठिन को कोस चुके
उस पार नियति का मानव से व्यवहार न जाने क्या होगा

संसृति के जीवन में सुभगे! ऐसी भी घड़ियाँ आएंगी
जब दिनकर की तमहर किरणें तम के अन्दर छिप जाएंगी
जब निज प्रियतम का शव, रजनी तम की चादर से ढँक देगी
तब रवि-शशि-पोषित यह पृथ्वी कितने दिन ख़ैर मनाएगी?
जब इस लंबे-चौड़े जग का अस्तित्व न रहने पाएगा
तब हम दोनों का नन्हा-सा संसार न जाने क्या होगा

ऐसा चिर पतझड़ आएगा कोयल न कुहुक फिर पाएगी
बुलबुल न अंधेरे में गा गा जीवन की ज्योति जगाएगी
अगणित मृदु-नव पल्लव के स्वर ‘मरमर’ न सुने फिर जाएंगे
अलि-अवली कलि-दल पर गुंजन करने के हेतु न आएगी
जब इतनी रसमय ध्वनियों का अवसान, प्रिये, हो जाएगा
तब शुष्क हमारे कंठों का उद्गार न जाने क्या होगा

सुन काल प्रबल का गुरु-गर्जन निर्झरिणी भूलेगी नर्तन
निर्झर भूलेगा निज ‘टलमल’ सरिता अपना ‘कलकल’ गायन
वह गायक-नायक सिन्धु कहीं चुप हो छिप जाना चाहेगा
मुँह खोल खड़े रह जाएंगे गंधर्व, अप्सरा, किन्नरगण
संगीत सजीव हुआ जिनमें जब मौन वही हो जाएंगे
तब, प्राण, तुम्हारी तंत्री का जड़ तार न जाने क्या होगा

उतरे इन आखों के आगे जो हार चमेली ने पहने
वह छीन रहा, देखो, माली सुकुमार लताओं के गहने
दो दिन में खींची जाएगी ऊषा की साड़ी सिन्दूरी
पट इन्द्रधनुष का सतरंगा पाएगा कितने दिन रहने
जब मूर्तिमती सत्ताओं की शोभा-सुषमा लुट जाएगी
तब कवि के कल्पित स्वप्नों का शृंगार न जाने क्या होगा

दृग देख जहाँ तक पाते हैं तम का सागर लहराता है
फिर भी उस पार खड़ा कोई हम सब को खींच बुलाता है
मैं आज चला तुम आओगी कल, परसों सब संगी-साथी
दुनिया रोती-धोती रहती जिसको जाना है, जाता है
मेरा तो होता मन डगमग तट पर ही के हलकोरों से
जब मैं एकाकी पहुँचूंगा मँझधार; न जाने क्या होगा

Chal Gai-Shail Chaturvedi

चल गई : शैल चतुर्वेदी

वैसे तो एक शरीफ इंसान हूं
आप ही की तरह श्रीमान हूं
मगर अपनी आंख से
बहुत परेशान हूं
अपने आप चलती है
लोग समझते हैं-
चलाई गई है
जानबूझ कर मिलाई गई है।

एक बार बचपन में
शायद सन पचपन में
क्लास में
एक लड़की बैठी थी पास में
नाम था सुरेखा
उसने हमें देखा
और आंख बाईं चल गई
लड़की हाय हाय करती
क्लास छोड़ बाहर निकल गई।
थोड़ी देर बाद
हमें है याद
प्रिंसिपल ने बुलाया
लंबा-चौड़ा लैक्चर पिलाया
हमने कहा कि जी भूल हो गई
वो बोला- ऐसा भी होता है भूल में
शर्म नहीं आती
ऐसी गंदी हरकतें करते हो स्कूल में?
और इससे पहले कि हकीकत बयान करते
कि फिर चल गई।
प्रिंसिपल को खल गई।
हुआ यह परिणाम
कट गया नाम
बमुश्किल तमाम
मिला एक काम।

इंटरव्यू में
खड़े थे क्यू में
एक लड़की थी सामने अड़ी
अचानक मुड़ी
नज़र उसकी हम पर पड़ी
और आंख चल गई
लड़की उछल गई
दूसरे उम्मीदवार चौंके
उस लड़की की साइड लेकर हम पर भौंके
फिर क्या था
मार-मार जूते-चप्पल
फोड़ दिया बक्कल
सिर पर पांव रखकर भागे
लोग-बाग पीछे, हम आगे
घबराहट में घुस गए एक घर में
भयंकर पीड़ा थी सिर में
बुरी तरह हांफ रहे थे
मारे डर के कांप रहे थे
तभी पूछा उस गृहिणी ने….
कौन?
हम खड़े रहे मौन
वो बोली- बताते हो या किसी को बुलाऊँ?
और उससे पहले कि जबान हिलाऊँ
चल गई
वह मारे गुस्से के जल गई
साक्षात् दुर्गा सी दीखी
बुरी तरह चीखी
बात की बात में
जुड़ गए अड़ोसी-पड़ोसी
मौसा-मौसी
भतीजे-मामा
मच गया हंगामा
चड्डी बना दिया हमारा पाजामा
बनियान बन गया कुर्ता
मार-मार बना दिया भुरता
हम चीखते रहे
और पीटने वाले हमें पीटते रहे
भगवान जाने कब तक निकालते रहे रोष
और जब आया हमें होश
तो देखा अस्पताल में पड़े थे
डॉक्टर और नर्स घेरे खड़े थे
हमने अपनी एक आंख खोली
तो एक नर्स बोली-
दर्द कहां है?
हम कहां-कहां बताते
और इससे पहले कि कुछ कह पाते
चल गई
नर्स कुछ नहीं बोली बाई गॉड!
मगर डॉक्टर को खल गई
बोला- इतने सीरियस हो
फिर भी ऐसी हरकत कर लेते हो इस हाल में
शर्म नहीं आती
मुहब्बत करते हुए अस्पताल में?
उन सबके जाते ही आया वार्ड-ब्वाय
देने लगा अपनी राय
भाग जाएं चुपचाप
नहीं जानते आप
बात बढ़ गई है
डॉक्टर को गढ़ गई है
केस आपका बिगड़वा देगा
न हुआ तो मरा बताकर
जिन्दा ही गड़वा देगा।
तब अंधेरे में आंख मूंदकर
खिड़की से कूदकर भाग आए
जान बची तो लाखों पाए।

एक दिन सकारे
बाप जी हमारे
बोले हमसे-
अब क्या कहें तुमसे?
कुछ नहीं कर सकते तो शादी ही कर लो
लड़की देख लो
मैंने देख ली है
जरा हैल्थ की कच्ची है
बच्ची है, फिर भी अच्छी है
जैसे भी, आखिर लड़की है
बड़े घर की है,
फिर बेटा
यहां भी तो कड़की है।
हमने कहा-
जी अभी क्या जल्दी है?
वे बोले-
गधे हो
ढाई मन के हो गए
मगर बाप के सीने पर लदे हो
वह घर फंस गया तो संभल जाओगे।
खोटे सिक्के हो, मगर चल जाओगे।

तब एक दिन भगवान से मिल के
धड़कते दिल से
पहुंच गए रुड़की, देखने लड़की
शायद हमारी होने वाली सास
बैठी थीं हमारे पास
बोलीं-
यात्रा में तकलीफ तो नहीं हुई
और आंख मुई
चल गई
वे समझीं कि मचल गई
बोलीं-
लड़की तो अंदर है
मैं तो लड़की की मां हूं
लड़की को बुलाऊँ
और इससे पहले कि जुबान हिलाऊँ
आंख चल गई दुबारा
उन्होंने किसी का नाम लेकर पुकारा
झटके से खड़ी हो गईं
हमारे पिताजी का पूरा प्लान धो गई।
हम जैसे गए थे, लौट आए
घर पहुंचे मुंह लटकाए
पिताजी बोले-
अब क्या फायदा मुंह लटकाने से
आग लगे ऐसी जवानी में
डूब मरो चुल्लू भर पानी में
नहीं डूब सकते तो आंख फोड़ लो
नहीं फोड़ सकते तो हमसे नाता तोड़ लो
जब भी कहीं जाते हो
पिटकर ही आते हो
भगवान जाने कैसे चलाते हो?

अब आप ही बताइए
क्या करूं
कहां जाऊं
कहां तक गुन गाऊं अपनी इस आंख के
कम्बख्त जूते खिलवाएगी
लाख-दो लाख के
अब आप ही संभालिए
मेरा मतलब है
कोई रास्ता निकालिए
जवान हो या वृध्दा
पूरी हो या अध्दा
केवल एक लड़की
जिसकी एक आंख चलती हो
पता लगाइए
और मिल जाए तो
हमारे आदरणीय काका जी को बताइए।

Ahinsawadi : Pradeep Chobey

अहिंसावादी : प्रदीप चौबे

बात बहुत छोटी थी श्रीमान्
विज्ञापन था-
पहलवान छाप बीड़ी
और हमारे मुँह से निकल गया
बीड़ी छाप पहलवान।

बस, हमारे पहलवान पड़ोसी
ताव खा गए
ताल ठोककर मैदान में आ गए
एक झापड़ हमारे गाल पर लगाया
हमें गुस्से की बजाय
महात्मा गांधी का ख्याल आया
हमने दूसरा गाल
पहलवान के सामने पेश कर दिया
मगर वो शायद
नाथूराम गोडसे का भक्त था
उसने दूसरे गाल पर भी धर दिया
फिर मुस्कुरा कर बोला-
एकाध और खाओगे?
लेकिन ये तो बताओ बेटा
तीसरा गाल कहाँ से लाओगे?

हमने कहा-
पहलवान जी
आपकी इस अप्रत्याशित
कार्यवाही ने
हमें बड़े संकट में डाल दिया है
गांधी जी ने ये तो कहा था
कि कोई एक गाल पर मारे
तो दूसरा लेकर आगे बढ़ना,
परन्तु जल्दबाज़ी में
वो ये बताना भूल गए
कि तुम जैसा कोई
पहलवान पल्ले पड़ जाए
तो क्या करना!

इसलिए हे पहलवान जी!
आप ज़रा पाँच मिनिट यहीं ठहरना
मैं अभी उनकी
आत्मकथा पूरी पढ़कर आता हूँ
शायद उसमें आगे कुछ लिखा हो।
कहकर हम
पी टी ऊषा की गति से
घर में घुसे
पहलवान के साथ-साथ
सारे मुहल्लेवाले
हमारी दुर्दशा पर हँसे
लेकिन ठीक पंद्रह मिनिट बाद
जब हम अपने घर से बाहर निकले
तो हमारे बाएँ हाथ में मूँछ
और दाएँ हाथ में रिवॉल्वर था
रिवाल्वर का निशाना
पहलवान की छाती पर था
रिवाल्वर देखते ही
पहलवान हकलाने लगे
बोले- ये…ये…क्या
त…त…तुम….तो
म…म…महात्मा गांधी के
भ…भ…भक्त हो!

हमने कहा- हूँ नहीं, था!
लेकिन अभी-अभी
पन्द्रह मिनिट पहले
मैंने उनकी पार्टी से इस्तीफ़ा देकर
चंद्रशेखर आज़ाद की पार्टी
ज्वाइन कर ली है
पूरी रिवाल्वर गोलियों से भर ली है
अब बोलो बेटा पहलवान
पहलवान छाप बीड़ी
या बीड़ी छाप पहलवान?

पहलवान बोले- हें…हें…हें…
जैसा आप ठीक समझें श्रीमान्!
हमने कहा-
श्रीमान् के बच्चे
साले, गुंडे, लफंगे, लुच्चे
अहिंसावादियों को डराता है!
महात्मा गांधी के भक्तों का
मज़ाक उड़ाता है!
ख़बरदार, आगे से पहलवानी दिखाई
तो हाथ-पैर तोड़कर
अखाड़े में डाल दूंगा,
इसी रिवाल्वर से
खोपड़ी का गूदा निकाल दूंगा।
मुहल्ले वालो!
आगे से क़सम खा लो
आज से कोई
इस पिद्दी पहलवान की
दादागीरी नहीं सहेगा
इस देश में
अगर अहिंसावादी नहीं रह पाया
तो कोई आतंकवादी भी नहीं रहेगा!

Hindi Diwas ke Dohe : Urmilesh Shankhdhar

हिंदी दिवस के दोहे : उर्मिलेश शंखधर

हिंदी भाषा ही नहीं, और न सिर्फ़ ज़ुबान।
यह अपने जह हिंद के नारे की पहचान॥

हिंदी में जन्मे-पले, बड़े हुए श्रीमान।
अब इंग्लिश में कर रहे, हिंदी का अपमान॥

वायुयान में बैठकर, कैसा मिला कुयोग।
हिंदुस्तानी लोग ही, लगे विदेशी लोग॥

हिंदी इतनी है बुरी, तो फिर स्वर को खोल।
अपना हिंदी नाम भी, अंगरेज़ी में बोल॥

‘डी ओ’ “डू” तो क्या हुआ ‘जी ओ’ का उच्चार।
अंगरेजी का व्याकरण, कितना बदबूदार॥

अंगरेजी ने कर दिये, पैदा कैसे “मैड”।
माँ को कहते हैं “ममी” और पिता को “डैड”॥

टीवी की हिंदी दिखी, अंगरेजी की चोर।
भारत चुप था इण्डिया मचा रही थी शोर॥

अंगरेजी के शब्द तक, कर लेती स्वीकार।
अपने भारत देश सी, हिंदी बड़ी उदार॥

अंगरेजी के पक्षधर, अंगरेजी के भाट।
अपने हिंदुस्तान को, कहीं न जाएँ चाट॥

Shikshak : Gemini Haryaanavi

विद्यार्थी नहले टीचर दहला : जैमिनी हरयाणवी

कक्षा में
विद्यार्थियों का शोर सुन कर
प्रिंसिपल कहने लगा-
“हे डियर टीचर
तुम बैठे हो
और ये विद्यार्थी
तुम्हारी परवाह न कर रहे रत्ती भर।”

टीचर बोला
अपनी कुर्सी से उठकर-
“मैं इनकी कौन सी
परवाह कर रहा हूँ सर!”

Gori Baithi Chhatt Par : Om Prakash Aditya

गोरी बैठी छत पर : ओमप्रकाश आदित्य

उदास रमणी और हिन्दी के कवि।
एक नवयुवती छज्जे पर बैठी है। वह उदास है। उसकी मुखमुद्रा को देखकर ऐसा लगता है, जैसे वह छज्जे से कूद कर आत्महत्या करने वाली हो। हिन्दी के विभिन्न कवियों से इस सिचुएशन पर यदि कविता लिखने को कहा जाता तो वे अपनी-अपनी शैली में किस प्रकार लिखते-

मैथिलीशरण गुप्त
अट्टालिका पर एक रमणी अनमनी-सी है, अहो!
किस वेदना के भार से संतप्त हो देवी, कहो!
धीरज धरो, संसार में किसके नहीं दुर्दिन फिरे!
हे राम! रक्षा कीजिए अबला न भूतल पर गिरे!

सुमित्रानंदन पंत
स्वर्ण-सौध के रजत शिखर पर
चिर नूतन चिर सुन्दर प्रतिपल
उन्मन-उन्मन
अपलक नीरव
शशि-मुख पर कोमल कुन्तल-पट
कसमस-कसमस चिर यौवन-घट
पल-पल प्रतिपल
छल-छल करती निर्मल दृग जल
ज्यों निर्झर के दो नीलकमल
यह रूप चपल ज्यों धूप चपल
अतिमौन
कौन?
रूपसि बोलो
प्रिये, बोलो ना!

महाकवि निराला
यह मन्दिर की पूजा संस्कृति का शिलान्यास
इसके आँचल में चिति की लीला का विलास
यह मर्माहत हो करे कूद कर आत्मघात
विकसित मानव वक्षस्थल पर धिक् वज्रपात
नर के सुख हित रक्षित अधिकारों के उपाय
युग-युग से नारी का दुख ही पर्याय हाय
बीतेगी, रे, कब बीतेगी यह अन्धरात
अबला कब होगी सबला कब होगा प्रभात।

रामधारी सिंह दिनकर
दग्ध हृदय में धधक रही उत्तप्त प्रेम की ज्वाला
हिमगिरि के उत्स निचोड़, फोड़ पाताल, बनो विकराला
ले ध्वंसों के निर्माण, माण से गोद भरो पृथ्वी की
छत पर से मत गिरो, गिरो अम्बर से वज्र सरीखी

काका हाथरसी
गोरी बैठी छत्त पर, कूदन को तैयार
नीचे पक्का फर्श है, भली करें करतार
भली करें करतार, न दे दे कोई धक्का
ऊपर मोटी नार कि नीचे पतरे कक्का
कह काका कविराय, अरी! आगे मत बढ़ना
उधर कूदना, मेरे ऊपर मत गिर पड़ना

गोपाल प्रसाद व्यास
छत पर उदास क्यों बैठी है
तू मेरे पास चली आ री!
जीवन का दुख-सुख बँट जाए
कुछ मैं गाऊँ कुछ तू गा री!
तू जहाँ कहीं भी जाएगी
जीवन भर कष्ट उठाएगी
यारों के साथ रहेगी तो
मथुरा के पेड़े खाएगी।

श्याम नारायण पाण्डेय
ओ घमण्ड मण्डिनी
अखण्ड खण्ड खण्डिनी
वीरता विमण्डिनी
प्रचण्ड चण्ड-चण्डिनी
सिंहनी की शान से
आन-बान-शान से
मान से, गुमान से
तुम गिरो मकान से
तुम डगर-डगर गिरो
तुम नगर-नगर गिरो
तुम गिरो अगर गिरो
शत्रु पर मगर गिरो!

भवानी प्रसाद मिश्र
गिरो!
तुम्हें गिरना है तो ज़रूर गिरो!
पर कुछ अलग ढंग से गिरो!
गिरने के भी कई ढंग होते हैं
गिरो
जैसे बूंद गिरती है किसी बादल से
और बन जाती है मोती
बखूबी गिरो हँसते-हँसते मेरे दोस्त
जैसे सीमा पर गोली खाकर सिपाही गिरता है
सुबह की पत्तियों पर ओस की बूंद जैसी गिरो!
गिरो!
पर ऐसे मत गिरो
जैसे किसी की आँख से कोई गिरता है
किसी ग़रीब की झोंपड़ी पर मत गिरो
बिजली की तरह गिरो
पर किसी की हो के गिरो
किसी के ग़म में रो के गिरो
कुछ करके गिरो
फिर चाहे भी भरके गिरो!

गोपालदास ‘नीरज’
यों न हो उदास रूपसि, तू मुस्कुराती जा
मौत में भी ज़िन्दगी के फूल कुछ खिलाती जा
जाना तो हर एक को है एक दिन जहान से
जाते-जाते मेरा एक गीत गुनगुनाती जा

देवराज दिनेश
मनहर सपनों में खोयी-सी
कुछ-कुछ उदास, कुछ रोयी सी
यह कौन हठीली छत से गिरने को आतुर
कह दो इससे अपने जीवन से प्यार करे
संघर्ष गले का हार करे
विपदाओं में जीना सीखे
जीवन यदि विष है तो उसको
हँसते-हँसते पीना सीखे
कह दो इससे!

बालकवि बैरागी
गौ…री, हे…मरवण…हे
गौरी हे! मरवण हे!
थारी बातों में म्हारी सब बाताँ
थारो सब कुंजी तालो जी
उतरो-उतरो म्हारी मरवण उतरो
घर को काम सँभालो जी
गौरी हे, मरवण हे।

सुरेन्द्र शर्मा
ऐरी के कररी है
छज्जै से निचै कुद्दै है
तो पहली मंजिल से क्यूँ कुद्दै
चैथी पे जा
जैसे क्यूँ बेरो तो पाट्टै
के कुद्दी थी।