हँसने का कोई मौसम नहीं होता। जहाँ चार यार मिल जाएँ वहीं रात हो गुलज़ार- की तर्ज़ पर अब हास्य कवि सम्मेलन का आयोजन कराने वाले लोगों में एक बड़ा वर्ग ऐसा है जो इस आयोजन के लिये अवसरों का मोहताज़ नहीं रह गया है। पहले से चले आ रहे परंपरागत आयोजनों की बात करें तो नव वर्ष (New Year), विवेकानंद जयंती (Vivekanand Jayanti), गणतंत्र दिवस (Republic Day), वसंत पंचमी (Vasant Panchami), होली (Holi), नव संवत्सर (Chaitra Shukla Pratipada), महावीर जयंती (Mahavira Jayanti), स्वतंत्रता दिवस (Independence Day), जन्माष्टमी (Janmashtami), शिक्षक दिवस (Teachers Day), पर्यूषण (Paryushan), क्षमावाणी (Kshamavani), हिंदी दिवस (Hindi Diwas), अग्रसेन जयंती (Agrasen Jayanti), नवरात्रि (Navratri), शरद पूर्णिमा (Sharadotsava), बाल दिवस (Bal Diwas), दीपावली (Dipawali), नव वर्ष (New Year)- ये नियमित क्रम है कवि सम्मेलनों (Kavi Sammelans) के आयोजनों का।
लेकिन इन अवसरों से इतर भी कवि सम्मेलनों की एक बड़ी शृंखला ऐसी है जो लगभग पूरे वर्ष चलती रहती हैं- शैक्षणिक संस्थानों के Foundations Day, Annual Day, Annual Fests, Corporates के Festivals, Corporates की Clint Meets, NGO’s के Various occasions, Banks और Media Groups के शृंखलाबद्ध उत्सव, Fairs (i.e. Trade Fair, Shilpotsava, Surajkund Craft Mela, Pushpotsava, Pushkar Mela, Nauchandi Mela, Bada Babu Mela, Kumbh Mela, Literary Fests, Book Fair, Health Mela & Food fair etc.) Prize distribution ceremonies of various institutions & Medical Colleges.
इससे कुछ आगे बढ़कर बहुत से संस्थान ऐसे हैं जिनमें कवि-सम्मेलन स्वयं में एक वार्षिक आयोजन है। अब कवि सम्मेलन के लिये हज़ारों लाखों की भीड़ जुटाने की बाध्यता भी समाप्त हो रही है। महिला क्लब, Lions Club, Rotary Club और ऐसे ही तमाम सामाजिक संगठनों की Monthly Meetings में Kavi Sammelan का आयोजन आम हो चला है। घर-परिवार में होने वाली छोटी-मोटी Get-together में एक-दो या तीन हास्य कवियों को बुलाकर छोटा सा कार्यक्रम करने का चलन भी आम हो गया है। शादी, सगाई, पिकनिक और यहाँ तक कि कुआँ पूजन जैसे विशुद्ध पारिवारिक उत्सवों में एक-दो घंटे के हास्य कवि सम्मेलनों की संख्या में क़ाफ़ी इज़ाफ़ा हुआ है।
कवि सम्मेलनों के इस बढ़ते प्रभाव को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि हम फूहड़ कार्यक्रमों से ऊब कर फिर से अपने साफ़-सुथरे मनोरंजन माध्यमों की ओर मुख़ातिब हुए हैं। शायद यह संस्कृति के स्वर्ण युग का आग़ाज़ है।
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