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Jana Gana Mana : Rabindranath Tagore

जय हे जय हे जय हे : रबीन्द्रनाथ टैगोर

जन-गण-मन अधिनायक जय हे
भारत-भाग्य-विधाता
पंजाब-सिन्ध-गुजरात-मराठा
द्राविड़-उत्कल-बंग
विन्ध्य-हिमाचल, यमुना-गंगा
उच्छल जलधि तरंग
तव शुभ नामे जागे
तव शुभ आशिष मांगे
गाहे तव जय गाथा
जन-गण-मंगलदायक जय हे
भारत-भाग्य-विधाता
जय हे, जय हे, जय हे
जय-जय-जय, जय हे
पतन-अभ्युदय-वन्धुर-पंथा
युग-युग धावित यात्री
हे चिर-सारथी
तव रथचक्रे मुखरित पथ दिन-रात्रि
दारुण विप्लव-माँझे
तव शंखध्वनि बाजे
संकट-दुख-श्राता
जन-गण-पथ-परिचायक जय हे
भारत-भाग्य-विधाता
जय हे, जय हे, जय हे
जय-जय-जय, जय हे
घोर-तिमिर-घन-निविड़-निशीथ
पीड़ित मूर्च्छित-देशे
जागृत दिल तव अविचल मंगल
नत-नत-नयन अनिमेष
दुस्वप्ने आतंके
रक्षा करिजे अंके
स्नेहमयी तुमि माता
जन-गण-मन-दुखत्रायक जय हे
भारत-भाग्य-विधाता
जय हे, जय हे, जय हे
जय-जय-जय, जय हे
रात्रि प्रभातिल उदिल रविच्छवि
पूरब-उदय-गिरि-भाले
साहे विहंगम, पूर्ण समीरण
नव-जीवन-रस ढाले
तव करुणारुण-रागे
निद्रित भारत जागे
तव चरणे नत माथा
जय-जय-जय हे, जय राजेश्वर
भारत-भाग्य-विधाता
जय हे, जय हे, जय हे
जय-जय-जय, जय हे

Us Paar Na Jaane Kya Hoga : Harivansh Rai Bachchan

उस पार न जाने क्या होगा : हरिवंश राय बच्चन

इस पार, प्रिये मधु है तुम हो
उस पार न जाने क्या होगा

यह चांद उदित होकर नभ में, कुछ ताप मिटाता जीवन का
लहरा-लहरा ये शाखाएँ कुछ शोक भुला देतीं मन का
कल मुरझाने वाली कलियाँ हँसकर कहती हैं मग्न रहो
बुलबुल तरु की फुनगी पर से संदेश सुनाती यौवन का
तुम देकर मदिरा के प्याले मेरा मन बहला देती हो
उस पार मुझे बहलाने का उपचार न जाने क्या होगा

जग में रस की नदियाँ बहतीं रसना दो बूंदें पाती है
जीवन की झिलमिल-सी झाँकी नयनों के आगे आती है
स्वरतालमयी वीणा बजती मिलती है बस झंकार मुझे
मेरे सुमनों की गंध कहीं यह वायु उड़ा ले जाती है
ऐसा सुनता; उस पार प्रिये! ये साधन भी छिन जाएंगे
तब मानव की चेतनता का आधार न जाने क्या होगा

प्याला है पर पी पाएंगे है ज्ञात नहीं इतना हमको
इस पार नियति ने भेजा है असमर्थ बना कितना हमको
कहने वाले पर कहते हैं हम कर्मों में स्वाधीन सदा
करने वालों की परवशता है ज्ञात किसे; जितनी हमको?
कह तो सकते हैं, कहकर ही कुछ दिल हल्का कर लेते हैं
उस पार अभागे मानव का अधिकार न जाने क्या होगा

कुछ भी न किया था जब उसका; उसने पथ में काँटे बोए
वे भार दिए धर कंधों पर जो रो-रोकर हमने ढोए
महलों के सपनों के भीतर जर्जर खंडहर का सत्य भरा
उर में ऐसी हलचल भर दी दो रात न हम सुख से सोए
अब तो हम अपने जीवन भर उस क्रूर कठिन को कोस चुके
उस पार नियति का मानव से व्यवहार न जाने क्या होगा

संसृति के जीवन में सुभगे! ऐसी भी घड़ियाँ आएंगी
जब दिनकर की तमहर किरणें तम के अन्दर छिप जाएंगी
जब निज प्रियतम का शव, रजनी तम की चादर से ढँक देगी
तब रवि-शशि-पोषित यह पृथ्वी कितने दिन ख़ैर मनाएगी?
जब इस लंबे-चौड़े जग का अस्तित्व न रहने पाएगा
तब हम दोनों का नन्हा-सा संसार न जाने क्या होगा

ऐसा चिर पतझड़ आएगा कोयल न कुहुक फिर पाएगी
बुलबुल न अंधेरे में गा गा जीवन की ज्योति जगाएगी
अगणित मृदु-नव पल्लव के स्वर ‘मरमर’ न सुने फिर जाएंगे
अलि-अवली कलि-दल पर गुंजन करने के हेतु न आएगी
जब इतनी रसमय ध्वनियों का अवसान, प्रिये, हो जाएगा
तब शुष्क हमारे कंठों का उद्गार न जाने क्या होगा

सुन काल प्रबल का गुरु-गर्जन निर्झरिणी भूलेगी नर्तन
निर्झर भूलेगा निज ‘टलमल’ सरिता अपना ‘कलकल’ गायन
वह गायक-नायक सिन्धु कहीं चुप हो छिप जाना चाहेगा
मुँह खोल खड़े रह जाएंगे गंधर्व, अप्सरा, किन्नरगण
संगीत सजीव हुआ जिनमें जब मौन वही हो जाएंगे
तब, प्राण, तुम्हारी तंत्री का जड़ तार न जाने क्या होगा

उतरे इन आखों के आगे जो हार चमेली ने पहने
वह छीन रहा, देखो, माली सुकुमार लताओं के गहने
दो दिन में खींची जाएगी ऊषा की साड़ी सिन्दूरी
पट इन्द्रधनुष का सतरंगा पाएगा कितने दिन रहने
जब मूर्तिमती सत्ताओं की शोभा-सुषमा लुट जाएगी
तब कवि के कल्पित स्वप्नों का शृंगार न जाने क्या होगा

दृग देख जहाँ तक पाते हैं तम का सागर लहराता है
फिर भी उस पार खड़ा कोई हम सब को खींच बुलाता है
मैं आज चला तुम आओगी कल, परसों सब संगी-साथी
दुनिया रोती-धोती रहती जिसको जाना है, जाता है
मेरा तो होता मन डगमग तट पर ही के हलकोरों से
जब मैं एकाकी पहुँचूंगा मँझधार; न जाने क्या होगा

Chal Gai-Shail Chaturvedi

चल गई : शैल चतुर्वेदी

वैसे तो एक शरीफ इंसान हूं
आप ही की तरह श्रीमान हूं
मगर अपनी आंख से
बहुत परेशान हूं
अपने आप चलती है
लोग समझते हैं-
चलाई गई है
जानबूझ कर मिलाई गई है।

एक बार बचपन में
शायद सन पचपन में
क्लास में
एक लड़की बैठी थी पास में
नाम था सुरेखा
उसने हमें देखा
और आंख बाईं चल गई
लड़की हाय हाय करती
क्लास छोड़ बाहर निकल गई।
थोड़ी देर बाद
हमें है याद
प्रिंसिपल ने बुलाया
लंबा-चौड़ा लैक्चर पिलाया
हमने कहा कि जी भूल हो गई
वो बोला- ऐसा भी होता है भूल में
शर्म नहीं आती
ऐसी गंदी हरकतें करते हो स्कूल में?
और इससे पहले कि हकीकत बयान करते
कि फिर चल गई।
प्रिंसिपल को खल गई।
हुआ यह परिणाम
कट गया नाम
बमुश्किल तमाम
मिला एक काम।

इंटरव्यू में
खड़े थे क्यू में
एक लड़की थी सामने अड़ी
अचानक मुड़ी
नज़र उसकी हम पर पड़ी
और आंख चल गई
लड़की उछल गई
दूसरे उम्मीदवार चौंके
उस लड़की की साइड लेकर हम पर भौंके
फिर क्या था
मार-मार जूते-चप्पल
फोड़ दिया बक्कल
सिर पर पांव रखकर भागे
लोग-बाग पीछे, हम आगे
घबराहट में घुस गए एक घर में
भयंकर पीड़ा थी सिर में
बुरी तरह हांफ रहे थे
मारे डर के कांप रहे थे
तभी पूछा उस गृहिणी ने….
कौन?
हम खड़े रहे मौन
वो बोली- बताते हो या किसी को बुलाऊँ?
और उससे पहले कि जबान हिलाऊँ
चल गई
वह मारे गुस्से के जल गई
साक्षात् दुर्गा सी दीखी
बुरी तरह चीखी
बात की बात में
जुड़ गए अड़ोसी-पड़ोसी
मौसा-मौसी
भतीजे-मामा
मच गया हंगामा
चड्डी बना दिया हमारा पाजामा
बनियान बन गया कुर्ता
मार-मार बना दिया भुरता
हम चीखते रहे
और पीटने वाले हमें पीटते रहे
भगवान जाने कब तक निकालते रहे रोष
और जब आया हमें होश
तो देखा अस्पताल में पड़े थे
डॉक्टर और नर्स घेरे खड़े थे
हमने अपनी एक आंख खोली
तो एक नर्स बोली-
दर्द कहां है?
हम कहां-कहां बताते
और इससे पहले कि कुछ कह पाते
चल गई
नर्स कुछ नहीं बोली बाई गॉड!
मगर डॉक्टर को खल गई
बोला- इतने सीरियस हो
फिर भी ऐसी हरकत कर लेते हो इस हाल में
शर्म नहीं आती
मुहब्बत करते हुए अस्पताल में?
उन सबके जाते ही आया वार्ड-ब्वाय
देने लगा अपनी राय
भाग जाएं चुपचाप
नहीं जानते आप
बात बढ़ गई है
डॉक्टर को गढ़ गई है
केस आपका बिगड़वा देगा
न हुआ तो मरा बताकर
जिन्दा ही गड़वा देगा।
तब अंधेरे में आंख मूंदकर
खिड़की से कूदकर भाग आए
जान बची तो लाखों पाए।

एक दिन सकारे
बाप जी हमारे
बोले हमसे-
अब क्या कहें तुमसे?
कुछ नहीं कर सकते तो शादी ही कर लो
लड़की देख लो
मैंने देख ली है
जरा हैल्थ की कच्ची है
बच्ची है, फिर भी अच्छी है
जैसे भी, आखिर लड़की है
बड़े घर की है,
फिर बेटा
यहां भी तो कड़की है।
हमने कहा-
जी अभी क्या जल्दी है?
वे बोले-
गधे हो
ढाई मन के हो गए
मगर बाप के सीने पर लदे हो
वह घर फंस गया तो संभल जाओगे।
खोटे सिक्के हो, मगर चल जाओगे।

तब एक दिन भगवान से मिल के
धड़कते दिल से
पहुंच गए रुड़की, देखने लड़की
शायद हमारी होने वाली सास
बैठी थीं हमारे पास
बोलीं-
यात्रा में तकलीफ तो नहीं हुई
और आंख मुई
चल गई
वे समझीं कि मचल गई
बोलीं-
लड़की तो अंदर है
मैं तो लड़की की मां हूं
लड़की को बुलाऊँ
और इससे पहले कि जुबान हिलाऊँ
आंख चल गई दुबारा
उन्होंने किसी का नाम लेकर पुकारा
झटके से खड़ी हो गईं
हमारे पिताजी का पूरा प्लान धो गई।
हम जैसे गए थे, लौट आए
घर पहुंचे मुंह लटकाए
पिताजी बोले-
अब क्या फायदा मुंह लटकाने से
आग लगे ऐसी जवानी में
डूब मरो चुल्लू भर पानी में
नहीं डूब सकते तो आंख फोड़ लो
नहीं फोड़ सकते तो हमसे नाता तोड़ लो
जब भी कहीं जाते हो
पिटकर ही आते हो
भगवान जाने कैसे चलाते हो?

अब आप ही बताइए
क्या करूं
कहां जाऊं
कहां तक गुन गाऊं अपनी इस आंख के
कम्बख्त जूते खिलवाएगी
लाख-दो लाख के
अब आप ही संभालिए
मेरा मतलब है
कोई रास्ता निकालिए
जवान हो या वृध्दा
पूरी हो या अध्दा
केवल एक लड़की
जिसकी एक आंख चलती हो
पता लगाइए
और मिल जाए तो
हमारे आदरणीय काका जी को बताइए।

Ahinsawadi : Pradeep Chobey

अहिंसावादी : प्रदीप चौबे

बात बहुत छोटी थी श्रीमान्
विज्ञापन था-
पहलवान छाप बीड़ी
और हमारे मुँह से निकल गया
बीड़ी छाप पहलवान।

बस, हमारे पहलवान पड़ोसी
ताव खा गए
ताल ठोककर मैदान में आ गए
एक झापड़ हमारे गाल पर लगाया
हमें गुस्से की बजाय
महात्मा गांधी का ख्याल आया
हमने दूसरा गाल
पहलवान के सामने पेश कर दिया
मगर वो शायद
नाथूराम गोडसे का भक्त था
उसने दूसरे गाल पर भी धर दिया
फिर मुस्कुरा कर बोला-
एकाध और खाओगे?
लेकिन ये तो बताओ बेटा
तीसरा गाल कहाँ से लाओगे?

हमने कहा-
पहलवान जी
आपकी इस अप्रत्याशित
कार्यवाही ने
हमें बड़े संकट में डाल दिया है
गांधी जी ने ये तो कहा था
कि कोई एक गाल पर मारे
तो दूसरा लेकर आगे बढ़ना,
परन्तु जल्दबाज़ी में
वो ये बताना भूल गए
कि तुम जैसा कोई
पहलवान पल्ले पड़ जाए
तो क्या करना!

इसलिए हे पहलवान जी!
आप ज़रा पाँच मिनिट यहीं ठहरना
मैं अभी उनकी
आत्मकथा पूरी पढ़कर आता हूँ
शायद उसमें आगे कुछ लिखा हो।
कहकर हम
पी टी ऊषा की गति से
घर में घुसे
पहलवान के साथ-साथ
सारे मुहल्लेवाले
हमारी दुर्दशा पर हँसे
लेकिन ठीक पंद्रह मिनिट बाद
जब हम अपने घर से बाहर निकले
तो हमारे बाएँ हाथ में मूँछ
और दाएँ हाथ में रिवॉल्वर था
रिवाल्वर का निशाना
पहलवान की छाती पर था
रिवाल्वर देखते ही
पहलवान हकलाने लगे
बोले- ये…ये…क्या
त…त…तुम….तो
म…म…महात्मा गांधी के
भ…भ…भक्त हो!

हमने कहा- हूँ नहीं, था!
लेकिन अभी-अभी
पन्द्रह मिनिट पहले
मैंने उनकी पार्टी से इस्तीफ़ा देकर
चंद्रशेखर आज़ाद की पार्टी
ज्वाइन कर ली है
पूरी रिवाल्वर गोलियों से भर ली है
अब बोलो बेटा पहलवान
पहलवान छाप बीड़ी
या बीड़ी छाप पहलवान?

पहलवान बोले- हें…हें…हें…
जैसा आप ठीक समझें श्रीमान्!
हमने कहा-
श्रीमान् के बच्चे
साले, गुंडे, लफंगे, लुच्चे
अहिंसावादियों को डराता है!
महात्मा गांधी के भक्तों का
मज़ाक उड़ाता है!
ख़बरदार, आगे से पहलवानी दिखाई
तो हाथ-पैर तोड़कर
अखाड़े में डाल दूंगा,
इसी रिवाल्वर से
खोपड़ी का गूदा निकाल दूंगा।
मुहल्ले वालो!
आगे से क़सम खा लो
आज से कोई
इस पिद्दी पहलवान की
दादागीरी नहीं सहेगा
इस देश में
अगर अहिंसावादी नहीं रह पाया
तो कोई आतंकवादी भी नहीं रहेगा!

Hindi Diwas ke Dohe : Urmilesh Shankhdhar

हिंदी दिवस के दोहे : उर्मिलेश शंखधर

हिंदी भाषा ही नहीं, और न सिर्फ़ ज़ुबान।
यह अपने जह हिंद के नारे की पहचान॥

हिंदी में जन्मे-पले, बड़े हुए श्रीमान।
अब इंग्लिश में कर रहे, हिंदी का अपमान॥

वायुयान में बैठकर, कैसा मिला कुयोग।
हिंदुस्तानी लोग ही, लगे विदेशी लोग॥

हिंदी इतनी है बुरी, तो फिर स्वर को खोल।
अपना हिंदी नाम भी, अंगरेज़ी में बोल॥

‘डी ओ’ “डू” तो क्या हुआ ‘जी ओ’ का उच्चार।
अंगरेजी का व्याकरण, कितना बदबूदार॥

अंगरेजी ने कर दिये, पैदा कैसे “मैड”।
माँ को कहते हैं “ममी” और पिता को “डैड”॥

टीवी की हिंदी दिखी, अंगरेजी की चोर।
भारत चुप था इण्डिया मचा रही थी शोर॥

अंगरेजी के शब्द तक, कर लेती स्वीकार।
अपने भारत देश सी, हिंदी बड़ी उदार॥

अंगरेजी के पक्षधर, अंगरेजी के भाट।
अपने हिंदुस्तान को, कहीं न जाएँ चाट॥

Shikshak : Gemini Haryaanavi

विद्यार्थी नहले टीचर दहला : जैमिनी हरयाणवी

कक्षा में
विद्यार्थियों का शोर सुन कर
प्रिंसिपल कहने लगा-
“हे डियर टीचर
तुम बैठे हो
और ये विद्यार्थी
तुम्हारी परवाह न कर रहे रत्ती भर।”

टीचर बोला
अपनी कुर्सी से उठकर-
“मैं इनकी कौन सी
परवाह कर रहा हूँ सर!”

Gori Baithi Chhatt Par : Om Prakash Aditya

गोरी बैठी छत पर : ओमप्रकाश आदित्य

उदास रमणी और हिन्दी के कवि।
एक नवयुवती छज्जे पर बैठी है। वह उदास है। उसकी मुखमुद्रा को देखकर ऐसा लगता है, जैसे वह छज्जे से कूद कर आत्महत्या करने वाली हो। हिन्दी के विभिन्न कवियों से इस सिचुएशन पर यदि कविता लिखने को कहा जाता तो वे अपनी-अपनी शैली में किस प्रकार लिखते-

मैथिलीशरण गुप्त
अट्टालिका पर एक रमणी अनमनी-सी है, अहो!
किस वेदना के भार से संतप्त हो देवी, कहो!
धीरज धरो, संसार में किसके नहीं दुर्दिन फिरे!
हे राम! रक्षा कीजिए अबला न भूतल पर गिरे!

सुमित्रानंदन पंत
स्वर्ण-सौध के रजत शिखर पर
चिर नूतन चिर सुन्दर प्रतिपल
उन्मन-उन्मन
अपलक नीरव
शशि-मुख पर कोमल कुन्तल-पट
कसमस-कसमस चिर यौवन-घट
पल-पल प्रतिपल
छल-छल करती निर्मल दृग जल
ज्यों निर्झर के दो नीलकमल
यह रूप चपल ज्यों धूप चपल
अतिमौन
कौन?
रूपसि बोलो
प्रिये, बोलो ना!

महाकवि निराला
यह मन्दिर की पूजा संस्कृति का शिलान्यास
इसके आँचल में चिति की लीला का विलास
यह मर्माहत हो करे कूद कर आत्मघात
विकसित मानव वक्षस्थल पर धिक् वज्रपात
नर के सुख हित रक्षित अधिकारों के उपाय
युग-युग से नारी का दुख ही पर्याय हाय
बीतेगी, रे, कब बीतेगी यह अन्धरात
अबला कब होगी सबला कब होगा प्रभात।

रामधारी सिंह दिनकर
दग्ध हृदय में धधक रही उत्तप्त प्रेम की ज्वाला
हिमगिरि के उत्स निचोड़, फोड़ पाताल, बनो विकराला
ले ध्वंसों के निर्माण, माण से गोद भरो पृथ्वी की
छत पर से मत गिरो, गिरो अम्बर से वज्र सरीखी

काका हाथरसी
गोरी बैठी छत्त पर, कूदन को तैयार
नीचे पक्का फर्श है, भली करें करतार
भली करें करतार, न दे दे कोई धक्का
ऊपर मोटी नार कि नीचे पतरे कक्का
कह काका कविराय, अरी! आगे मत बढ़ना
उधर कूदना, मेरे ऊपर मत गिर पड़ना

गोपाल प्रसाद व्यास
छत पर उदास क्यों बैठी है
तू मेरे पास चली आ री!
जीवन का दुख-सुख बँट जाए
कुछ मैं गाऊँ कुछ तू गा री!
तू जहाँ कहीं भी जाएगी
जीवन भर कष्ट उठाएगी
यारों के साथ रहेगी तो
मथुरा के पेड़े खाएगी।

श्याम नारायण पाण्डेय
ओ घमण्ड मण्डिनी
अखण्ड खण्ड खण्डिनी
वीरता विमण्डिनी
प्रचण्ड चण्ड-चण्डिनी
सिंहनी की शान से
आन-बान-शान से
मान से, गुमान से
तुम गिरो मकान से
तुम डगर-डगर गिरो
तुम नगर-नगर गिरो
तुम गिरो अगर गिरो
शत्रु पर मगर गिरो!

भवानी प्रसाद मिश्र
गिरो!
तुम्हें गिरना है तो ज़रूर गिरो!
पर कुछ अलग ढंग से गिरो!
गिरने के भी कई ढंग होते हैं
गिरो
जैसे बूंद गिरती है किसी बादल से
और बन जाती है मोती
बखूबी गिरो हँसते-हँसते मेरे दोस्त
जैसे सीमा पर गोली खाकर सिपाही गिरता है
सुबह की पत्तियों पर ओस की बूंद जैसी गिरो!
गिरो!
पर ऐसे मत गिरो
जैसे किसी की आँख से कोई गिरता है
किसी ग़रीब की झोंपड़ी पर मत गिरो
बिजली की तरह गिरो
पर किसी की हो के गिरो
किसी के ग़म में रो के गिरो
कुछ करके गिरो
फिर चाहे भी भरके गिरो!

गोपालदास ‘नीरज’
यों न हो उदास रूपसि, तू मुस्कुराती जा
मौत में भी ज़िन्दगी के फूल कुछ खिलाती जा
जाना तो हर एक को है एक दिन जहान से
जाते-जाते मेरा एक गीत गुनगुनाती जा

देवराज दिनेश
मनहर सपनों में खोयी-सी
कुछ-कुछ उदास, कुछ रोयी सी
यह कौन हठीली छत से गिरने को आतुर
कह दो इससे अपने जीवन से प्यार करे
संघर्ष गले का हार करे
विपदाओं में जीना सीखे
जीवन यदि विष है तो उसको
हँसते-हँसते पीना सीखे
कह दो इससे!

बालकवि बैरागी
गौ…री, हे…मरवण…हे
गौरी हे! मरवण हे!
थारी बातों में म्हारी सब बाताँ
थारो सब कुंजी तालो जी
उतरो-उतरो म्हारी मरवण उतरो
घर को काम सँभालो जी
गौरी हे, मरवण हे।

सुरेन्द्र शर्मा
ऐरी के कररी है
छज्जै से निचै कुद्दै है
तो पहली मंजिल से क्यूँ कुद्दै
चैथी पे जा
जैसे क्यूँ बेरो तो पाट्टै
के कुद्दी थी।

Itihaas Ka Parcha : Omprakash Aditya

इतिहास का पर्चा : ओमप्रकाश ‘आदित्य’

इतिहास परीक्षा थी उस दिन, चिंता से हृदय धड़कता था
थे बुरे शकुन घर से चलते ही, दाँया हाथ फड़कता था

मैंने सवाल जो याद किए, वे केवल आधे याद हुए
उनमें से भी कुछ स्कूल तकल, आते-आते बर्बाद हुए

तुम बीस मिनट हो लेट द्वार पर चपरासी ने बतलाया
मैं मेल-ट्रेन की तरह दौड़ता कमरे के भीतर आया

पर्चा हाथों में पकड़ लिया, ऑंखें मूंदीं टुक झूम गया
पढ़ते ही छाया अंधकार, चक्कर आया सिर घूम गया

उसमें आए थे वे सवाल जिनमें मैं गोल रहा करता
पूछे थे वे ही पाठ जिन्हें पढ़ डाँवाडोल रहा करता

यह सौ नंबर का पर्चा है, मुझको दो की भी आस नहीं
चाहे सारी दुनिय पलटे पर मैं हो सकता पास नहीं

ओ! प्रश्न-पत्र लिखने वाले, क्या मुँह लेकर उत्तर दें हम
तू लिख दे तेरी जो मर्ज़ी, ये पर्चा है या एटम-बम

तूने पूछे वे ही सवाल, जो-जो थे मैंने रटे नहीं
जिन हाथों ने ये प्रश्न लिखे, वे हाथ तुम्हारे कटे नहीं

फिर ऑंख मूंदकर बैठ गया, बोला भगवान दया कर दे
मेरे दिमाग़ में इन प्रश्नों के उत्तर ठूँस-ठूँस भर दे

मेरा भविष्य है ख़तरे में, मैं भूल रहा हूँ ऑंय-बाँय
तुम करते हो भगवान सदा, संकट में भक्तों की सहाय

जब ग्राह ने गज को पकड़ लिया तुमने ही उसे बचाया था
जब द्रुपद-सुता की लाज लुटी, तुमने ही चीर बढ़ाया था

द्रौपदी समझ करके मुझको, मेरा भी चीर बढ़ाओ तुम
मैं विष खाकर मर जाऊंगा, वर्ना जल्दी आ जाओ तुम

आकाश चीरकर अंबर से, आई गहरी आवाज़ एक
रे मूढ़ व्यर्थ क्यों रोता है, तू ऑंख खोलकर इधर देख

गीता कहती है कर्म करो, चिंता मत फल की किया करो
मन में आए जो बात उसी को, पर्चे पर लिख दिया करो

मेरे अंतर के पाट खुले, पर्चे पर क़लम चली चंचल
ज्यों किसी खेत की छाती पर, चलता हो हलवाहे का हल

मैंने लिक्खा पानीपत का दूसरा युध्द भर सावन में
जापान-जर्मनी बीच हुआ, अट्ठारह सौ सत्तावन में

लिख दिया महात्मा बुध्द महात्मा गांधी जी के चेले थे
गांधी जी के संग बचपन में ऑंख-मिचौली खेले थे

राणा प्रताप ने गौरी को, केवल दस बार हराया था
अकबर ने हिंद महासागर, अमरीका से मंगवाया था

महमूद गजनवी उठते ही, दो घंटे रोज नाचता था
औरंगजेब रंग में आकर औरों की जेब काटता था

इस तरह अनेकों भावों से, फूटे भीतर के फव्वारे
जो-जो सवाल थे याद नहीं, वे ही पर्चे पर लिख मारे

हो गया परीक्षक पागल सा, मेरी कॉपी को देख-देख
बोला- इन सारे छात्रों में, बस होनहार है यही एक

औरों के पर्चे फेंक दिए, मेरे सब उत्तर छाँट लिए
जीरो नंबर देकर बाकी के सारे नंबर काट लिए

Gavaskar Ne Record Toda : SHARAD JOSHI

गावस्कर ने रेकार्ड तोड़ा : शरद जोशी

जब गावस्कर ने ब्रेडमेन का रेकार्ड तोड़ा, देश के कई खिलाड़ियों ने अपने आप से एक सवाल किया- यह काम मैंने क्यों नहीं किया? मैंने क्यों नहीं तोड़ा ब्रेडमेन का रेकार्ड? यह प्रश्न अपने आप से पूछने वालों में एक मैं भी हूँ। क्यों शरद, जो काम गावस्कर ने किया वह तुमने क्यों नहीं किया?
कारण व्यक्तिगत है। मैं क्या कहूँ कि यह निष्ठुर समाज दोषी है जिसने मुझे गावस्कर नहीं बनने दिया। सच यह है कि पिच पर बल्ला हाथ में लिए, एक या दो रन बनाने के बाद मैं हेमलेट हो जाता था। सामने से बाल आती। मैं मन ही मन सोचता, टु बी आर नाट टू बी, पीटूँ कि नहीं पीटूँ। एक-दो रन बनाकर ही स्वयं से प्रश्न करने लगता- शरद तुम कहाँ हो? क्या कर रहे हो? सामने खड़े लोगों में कौन तुम्हारा मित्र है और कौन शत्रु?
क्रिकेट के मैदान में बल्ला लिये खड़े मुझे विश्वास नहीं होता कि जो मेरे सामने तन कर बल्ला लिये खड़ा है, वह तो मेरा साथी है। और जो ठीक पीछे नम्र मुद्रा में पीठ झुकाए खड़ा है वह मेरा प्राणघाती शत्रु है। ज़रा सोचिये, जो मित्र है वह सामने खड़ा है। जो शत्रु है वह पीठ के पीछे है। मेरे रनआउट होने के लिए मित्रो, इतना ही काफी है।
चारों तरफ फील्डर्स खड़े हैं। मुझे लगता, मेरे प्रशंसक खड़े हैं। वे बड़ी अपेक्षा से मेरी ओर देखते कि मैं गेंद को हिट करूंगा। मैं उत्साह में कर भी देता और वे कैच ले लेते। कर्म की प्रेरणा से बड़ा घोटाला हो जाता था मित्रो! जिन्हें मैं अपना समझता था, वे पराये निकलते। मुझमें एक और मानवीय गुण था। मैं गेंद को हिट करने के बाद दौड़ता नहीं था। अपनी पीटी गेंद को दूर तक जाते देखना मुझे अच्छा लगता था। ऐसे सुन्दर और सुहाने दृश्य को विकेट के बीच दौड़ कर गँवाना मुझे अच्छा नहीं लगता था। चारों तरफ से लोग चिल्लाते- दौड़ उल्लू, दौड़। मगर एक सुंदर गेंद को दूर तक जाते देखना कितना सुखद होता है, यह तो मुझ जैसा व्यक्ति ही समझ सकता है, जो बल्लेबाज होने का साथ अच्छा दर्शक भी था।
वे भी क्या दिन थे! धुआँधार नान-स्टाप क्रिकेट होता था। क्रिकेट अनिश्चितता का खेल है, यह बात सारा मुहल्ला जानता था। सुबह जब हम खेलने उतरते थे तो कोई नहीं जानता था कि किसकी खिड़की का काँच फूटेगा, किसके कंधे पर गेंद लगेगी। अच्छे क्रिकेट के लिए घर के सामने सड़क जितनी चैड़ी होनी चाहिए थी, उतनी थी नहीं। इसका लाभ भी था। गावस्कर जितनी दूरी तक गेंद मारकर एक रन बनाता है, उतने में हम चार बना लेते। विकेट के बीच की दूरी भी कम थी। आख़िर विकेटकीपर के खड़े रहने के लिए भी तो कुछ जगह निकालनी थी। वो क्या पीछे नाली में खड़ा रहता?
ब्रेडमेन का रेकार्ड मेरे द्वारा तोड़े जाने का सवाल ही नहीं था। हमारी टीम में बुधवार को कितने स्कोर बनाए थे, गुरुवार को याद नहीं रहता था। अगर मैं कहूँ कि अमुक दिन सेंचुरी बनाई तो सब कहते थे- तुमने कभी सेंचुरी नहीं बनाई। आरंभिक संघर्ष के दिन थे। मेरे लिए तो वे ही अंतिम थे।
अंपायर से मेरे संबंध कभी अच्छे नहीं रहे। वो मेरा बेटा इसी उतावली में रहता कि कब मैं आउट होऊँ तो कब वह उंगली उठाए। वह बालर को कभी नहीं कहता था कि टाइट गेंद मत फेंक। भई, रन नहीं बनाने देना है तो मुझे बुलाया ही क्यों? मुझे समूची व्यवस्था अपने विरोध में खड़ी जान पड़ती थी। मैं बल्ला हाथ में ले उस तंत्र के सामने स्वयं को बड़ा अकेला और असहाय अनुभव करता था।
अपनी निगाह में मैं अच्छा ओपनर था। मगर हमारी टीम में सभी अपनी निगाह में अपने को अच्छा ओपनर समझते थे। कई बार खेल इसीलिए देर तक शुरू नहीं हो पाता था कि ओपन कौन करेगा। मेरी विशेषता यह थी कि रन चाहे न बना पाऊँ, एक बार ओपनर हो जाने के बाद मेरा क्लोज़ होना मुश्किल हो जाता था। क्रिकेट की भाषा में जिसे कहें- एक छोर पर जमे रहना। मैं दोनों छोर पर जमा रहता। जब सामने वाला खिलाड़ी सिंगल बनाता, तभी मैं यह छोर छोड़ता। जाकर दूसरे पर खड़ा हो जाता।
मुझमें और गावस्कर में खिलाड़ी के नाते बड़ा फर्क है। वह नई बाल पर आउट हो जाता है, मैं पुरानी पर ही हो जाता हूँ। कई बार वह नई पर भी नहीं होता। मैंने तो नई बाल ओपनर होने को बावजूद नहीं देखी। हमारे मुहल्ले में एक ही बाल थी, जिसे हम निरंतर अपनी पतलून पर घिसकर चमक बनाए रखते थे। पतलून चमकने लगता था, बाल फिर भी नहीं चमकती थी।
आज सभी खिलाड़ी अपने आप से पूछते हैं कि मैंने ब्रेडमेन का रेकार्ड क्यों नहीं तोड़ा? ब्रेडमेन तो विदेशी था। उसका रेकार्ड तोड़ना कठिन था। गावस्कर तो इसी देश का है। उसी का तोड़ कर बताओ। सच यह है कि हम जिस लुग्दी के बने हैं उस पर सिर्फ कविता संकलन छप सकते हैं, नेताओं के भाषण छप सकते हैं। अप्लीकेशन लिखी जा सकती है। अगर हम वे रेकार्ड तोड़ सकते तो भारतीय प्रजातंत्र की कई समस्याएँ भी सुलझा लेते।

Jeetne ke baad Baazi haarte Rahe : Aatm Prakash Shukla

जीतने के बाद बाज़ी हारते रहे : आत्मप्रकाश शुक्ल

चीन छीन देश का गुलाब ले गया
ताशकंद में वतन का लाल सो गया
हम सुलह की शक्ल ही सँवारते रहे
जीतने के बाद बाज़ी हारते रहे

सैंकड़ों हमीद ईद पे नहीं मिले
ज्योति दीप ज्योतिपर्व पर नहीं जले
सो गए सिंदूर, मौन चूड़ियाँ हुईं
जो चले गए वे लौट के नहीं मिले
खिड़कियों से दो नयन निहारते रहे

मौत का लिफ़ाफ़ा लिए डाकिया मिला
वृद्ध माँ के स्तनों से दूध बह चला
बूढ़ा बाप पाँव थाम पूछने लगा
बोलो कैसा मेरा लाडला
डाकिये के नैन अश्रु झाड़ते रहे

कैसे भर सकेगा उनके कर्ज को वतन
प्राण दिए पर न लिया हाथ भर क़फ़न
संधियों पे और लोग दस्तख़त करें
वे निभा गए हैं देश को दिया वचन
प्राण दे के जय वतन पुकारते रहे

पूछ रहीं रखियाँ, कलाइयाँ कहाँ
बेवा दुल्हनों की शहनाइयाँ कहाँ
बालहठ पूछे कब आएंगे पिता
गिन-गिन काटें दिन

प्यास रक्त की नदी के नीर से बुझी नहीं
दानवों की कौम देवताओं से मिली नहीं
शांति के कपोत फड़फड़ा के पंख रह गए
युद्ध के पिशाच बाज की झपट रुकी नहीं
हम अपन का पक्ष ही पुगालते रहे