यद्यपि हिंदी कवि सम्मेलन संचार के परंपरागत माध्यमों में गणित किये जाते हैं, तथापि प्रचलित समाचार माध्यमों और कवि सम्मेलनों के मध्य एक शीत युद्ध सा चलता रहा है। एक समय था जब हिंदी के सभी प्रमुख समाचार-पत्र कवि-सम्मेलनों और कवियों से संबंधित समाचारों को प्रमुखता से प्रकाशित करते थे। इसके पीछे एक प्रमुख कारण यह भी था कि तब पत्रकारों की बिरादरी में अधिकतर नाम ऐसे थे जो कवि-सम्मेलनों के मंचों पर भी समान रूप से सक्रिय थे। इस दौर में साप्ताहिक हिंदुस्तान, धर्मयुग, जनसत्ता और जागरण जैसे तमाम पत्र कविता के बिना पूरे नहीं होते थे। इस दौर में पत्रकारिता और कविता के मध्य एक गहरा सामंजस्य दिखाई देता था।
इसके बाद बहुत तेज़ी से मंच और पत्रकारिता; दोनों ने अपना स्वरूप बदलना शुरू किया। उधर पत्रकारिता सिद्धांतों की मचान छोड़कर पूरी तरह बाज़ार में आ खड़ी हुई और इधर मंच की कविता में मनोरंजन के तत्व का अनुपात बढ़ गया। दोनों ही कुनबों में अर्थ हावी होता दिखने लगा। इसमें कुछ ग़लत भी नहीं था। पत्रकार और कवि को अपनी पुरानी झोलाछाप छवि को त्याग कर ग्लैमराइज़ होने का अवसर मिलने लगा। अब पत्रकारिता और मंचीय कविता दोनों ही अपने भूखे बेचारे चेहरे को पीछे छोड़ने लगे थे। अब कविता ने भी खादी के मोटे भदेस कुर्ते को त्याग कर पैंट-बुर्शेट पहनना शुरू कर दिया था और पत्रकारिता भी कपड़े का झोला छोड़ कर मॉडर्न होने लगी थी।
लेकिन परिवर्तन के इस दौर में “साहित्यिक पत्रकारिता” लगभग विलुप्त होने के कगार पर पहुँच गई। उधर पत्रकारिता काग़ज़ और क़लम को त्याग कर लैपटॉप और इंटरनेट तक पहुँच गई थी और इधर कविता भी कॉर्पोरेट और ग्लैमर के परकोटे में प्रवेश कर गई थी। बदलाव का सफ़र पूरा करने के बाद जब इन दोनों ने परस्पर एक-दूसरे से साक्षात्कार किया तो दोनों ही बहुत बदले-बदले नज़र आए। “सावन के अंधे” की तरह दोनों की स्मृतियों में एक-दूसरे की जो छवि थी वह दो दशक पूर्व वाली ही थी, लेकिन दोनों ही इस सत्य को देखने से चूक गए कि जो परिवर्तन उन्हें सामने वाले में दिखाई दे रहे हैं, उससे कहीं ज़्यादा परिवर्तन उनकी अपनी पर्सनैलिटी में भी है।
इस सत्यज्ञान के अभाव में कवि पत्रकारों को पत्रकार मानना बंद कर चुके हैं और पत्रकारों ने कवियों को कवि मानना बंद कर दिया है। आज जब कोई पत्रकार किसी कुमार विश्वास को बिज़निस क्लास में सफ़र करता देखता है तो यह भूल जाता है कि उनका दीपक चौरसिया भी चार्टर्ड प्लेन में उड़ने लगा है। जब कोई सुरेन्द्र शर्मा प्रशंसकों की भीड़ से घिरा ऑटोग्राफ देता दिखाई देता है तो यह बात ध्यान में नहीं आती कि बरखा दत्त जब जनता के बीच जाती हैं तो रिपोर्ट कम देती हैं और फ़ैंस रेस्पोंस ज़्यादा। हमारे शैलेष लोढ़ा को पब्लिक के बीच से निकलने के लिये कभी-कभी सिक्योरिटी की ज़रूरत पड़ जाती है तो उनके रवीश भी कई बार यह स्थिति भुगत चुके हैं। हमारे अशोक चक्रधर का राजनैतिक हलक़नामों में दख़ल बढ़ने लगा है तो उनके प्रभु चावला भी राजनेताओं से सीधे संपर्क में रहते हैं। हमारे अरुण जैमिनी सूट पहनकर टाई लगाए हुए मंच पर दिखने लगे हैं तो उनके रजत शर्मा भी बहुत लम्बे समय से कुर्ते में नहीं दिखाई दिये। हमारी नई पीढ़ी मंच पर गीत कम और चुटकुले अधिक सुना रही है तो पत्रकारों की नई खेंप भी भाषा की परिपक्वता को ताक़ पर रखकर फ़िल्मी गानों को उद्धृत करते हुए पीटूसी देने लगी है। हमारी कविताओं में अंग्रेजी के शब्द स्थान पाने लगे हैं तो उनकी रिपोर्टिंग की भाषा को भी हिंग्लिश के रूप में मान्यता मिल चुकी है।
कुल मिलाकर स्थिति यह है कि संचार की इन दोनों ही विधाओं (जिन्होंने कभी एक ही पगडंडी से अपना सफ़र प्रारंभ किया था) इन्होंने आज अपनी-अपनी लेन में दूसरे का प्रवेश बंद कर दिया है। इधर कुछ दिनों से एंटरटेनमेंट मीडिया ने फिर से मंचीय कविता की सुध लेनी शुरू कर दी है। सब टीवी पर चल रहा “वाह-वाह क्या बात है” टीआरपी इंडेक्स में सुदृढ़ स्थिति बनाए हुए है तो महुआ चैनल भी “वाह कवि जी” नाम से हास्य कवियों का एक शानदार शो लेकर मैदान में उतर रहा है। बजट जैसे महत्वपूर्ण विषय पर सहारा समय ने कवियों के इनपुट्स डाले हैं।
देश में हर साल हज़ारों कवि-सम्मेलन आयोजित होते हैं लेकिन उनमें से 20 प्रतिशत भी अख़बारों के पृष्ठों पर स्थान नहीं ले पाते। जो कुछ ख़बरें छपती भी हैं वे सिंगल कॉलम या अधिक से अधिक डबल कॉलम तक सिमट कर रह जाती हैं। जागरण, अमर उजाला और हिंदुस्तान में फिर भी कभी-कभी सचित्र रिपोर्टिंग देखने को मिल जाती है लेकिन दिल्ली के संस्करणों में यह आँकड़ा बेहद न्यून रह जाता है। नवभारत टाइम्स में पिछले कुछ सप्ताह से कुछ शायरों के अशआर रविवार को प्रकाशित किये जा रहे हैं। यह मरुथल में बबूल के पेड़ जैसा महसूस होता है।
आज मंचीय कविता ग्लैमर के केंद्र की ओर अग्रसर है। अनेक कवि सेलिब्रिटी स्टेटस जी रहे हैं। कवि-सम्मेलन कॉर्पोरेट जगत् तक पैंठ बना चुका है। ऐसे में इलैक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया को कवि-सम्मेलनों और कवियों की ख़बरों के प्रदि गंभीर होना चाहिये। दिल्ली जैसे महानगरों की डेवलप्ड मीडिया की उदासीनता अनजाने ही ख़बरों का एक ऐसा बड़ा कोष छोड़े दे रही है, जो न केवल ख़बरों का टोटा कम करने को पर्याप्त है बल्कि पेज थ्री गॉसिप के लिये भी उपयुक्त हो सकता है।
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